Monday 5 March 2012

पान सिंह तोमर :ब्रेन ड्रेन बनाम हर्ट ड्रेन

जय प्रकाश चोकसे(फिल्म समीक्षक देनिक भास्कर ) के जादुई और  हृदय भेदी शब्द बाणों से घायल होकर मरहम की उम्मीद लगाए सिनेमा हाल पहुंचा .छ साल बाद सिनेमा का दर्शन एक शानदार अनुभव रहा ,वैसे पी.सी. पर फिल्मे देखना अपना नियमित शगल रहा है.
 फिल्म शुरू होती है आखरी पांच मिनट से ओर जब शुरू के सीन पर खतम हुई ,तो 1981 से 1954 के बीच का काल खंड मस्तिष्क को बुरी तरह झकझोर गया .प्रजातंत्र को पैबंदो से ढक कर रख दिया इस जीवन चरित ने .पान सिंह तोमर साधारण सा ,सरल सा सेना का जवान जब अपनी मासूमियत से अपनी नियति लिखना शुरू करता है .तो साठ के दशक में देश को उस रुमानियत का आभास होता है ,जिसमे लोग गुलामी के घावों को भूल कर पान सिंह की उपलब्धियों के सहारे अपनी पीठ थप थपाने की कोशिश करते है. ''एशियाड'' में शानदार प्रदर्शन और ''विश्व सेन्य खेलो'' में ''स्वर्ण पदक'' पान सिंह की व्यक्तिगत उपलब्धिया कहाँ रह गयी होंगी .निश्चित तौर पर वो अब देश की उपलब्धिया थी .
गर्भवती  पुत्रवधू के सहारे परिवार जितनी उमंग,खुशी और भविष्य सपने पालता है.उतनी  ही उम्मीद देश ने पान सिंह से न पाली हो, हो नहीं सकता .मगर माँ की प्रसव पीड़ा को कौन समझे -महसूस करे .स्वराज का सपना उस समय खंडित होना शुरू हो जाता है -जब स्वर्णिम इतिहास लिखने वाली पान सिंह की कलम की स्याही को अन्यायपूर्ण व्यवस्था और भ्रष्ट नौकरशाही का ब्लोटिंग पेपर सुखा देता है .जो कलम नेशनल स्टेडियम और जापान की राजधानी के बेहतरीन मैदानों में धडल्ले से इतिहास लिखती है ,वही कलम चम्बल की घाटियों में रक्त से भीगी-भीगी चलने की कोशिश करती है .तालियों की गडगडाहट के पीछे मैदान में हर्डल कूदने वाला गोलियों की गडगडाहट के बीच चम्बल के हुर्दल पार करता नज़र आता है .यह कैसी नियति थी पान सिंह तोमर की ,कि गले में गोल्ड मैडल के रिब्बन के साथ नरमुंड भी बांध दिए इस असम्वेदनशील व्यवस्था ने .
प्रश्न यह है कि क्यों इस देश में माँ अपने बेटो को ओलम्पिक में स्वर्ण लाने भेजे .बेटा पदक के साथ पान सिंह सी नियति भी ले आया तो क्या होगा !!
कहानी असल न होती तो कहानीकार कि तारीफ करता मै, मगर पान सिंह तोमर जब आखिर में नहर को कूद कर पार करता है,और गोली खाता है तब अनायास ही दो आंसू उस लिजेंड की जीवित कब्र पर छूट जाते है .